Natasha

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लेखनी कहानी -27-Jan-2023

वचन तो सचमुच ही दे आया, किन्तु वहाँ जाना कितना बड़ा दु:साहस है, यह तो मुझसे बढ़कर कोई न जानता था। उसी समय से मेरा मन भारी हो गया और नींद के समय में प्रगाढ़ अशान्ति का भाव मेरे सर्वांग में विचरण करता रहा। सुबह उठते ही, पहले यही मन में आया कि आज जिस जगह जाने के लिए वचन-बद्ध हुआ हूँ, उस जगह जाने से किसी भी तरह मेरा भला न होगा। किसी सूत्र से यदि कोई जान जायेगा, तो वापिस लौटने पर जो सजा भुगतनी पड़ेगी, उसकी चाहना तो शायद मँझले भइया के लिए भी छोटे भइया न कर सकेंगे। अन्त में खा पीकर, पाँच रुपये छिपाकर, जब मैं घर से बाहर निकला तब यह बात भी अनेक बार मन में आई कि, जाने की जरूरत नहीं है। बला से, न रक्खा अपने वचन को, और इससे मेरा आता-जाता ही क्या है?


यथा-स्थान पहुँचकर देखा कि सरकी के झुण्ड के नीचे, उसी छोटी-सी नाव के ऊपर, इन्द्र सिर ऊपर उठाए मेरी राह देख रहा है। ऑंख से ऑंख मिलते ही उसने इस तरह हँसकर मुझे बुलाया कि न जाने की बात अपने मुँह से मैं निकाल ही न सका। सावधानी से, धीरे-धीरे उतरकर, चुपचाप, मैं नाव पर चढ़ गया। इन्द्र ने नाव खोल दी।

आज मैं सोचता हूँ कि बहुत जन्म के पुण्यों का फल था जो उस दिन मैं भय के मारे लौट न आया। उस दिन को उपलक्ष्य करके जो चीज मैं देख आया, उसे देखना, सारे जीवन सारी पृथ्वीि छान डालने पर भी कितने से लोगों के भाग्य में होता है? स्वयं मैं भी वैसी वस्तु और कहाँ देख सका हूँ? जीवन में ऐसा शुभ मुहूर्त अनेक बार नहीं आता। यदि कभी आता भी है तो, वह समस्त चेतना पर ऐसी गम्भीर छाप मार जाता है कि बाद का सारा जीवन मानो उसी साँचे में ढल जाता है। मैं समझता हूँ कि इसीलिए मैं स्त्री-जाति को कभी तुच्छ रूप में नहीं देख सका। इसीलिए बुद्धि से मैं इस प्रकार के चाहे जितने तर्क क्यों न करूँ कि संसार में क्या पिशाचियाँ नहीं हैं? यदि नहीं, तो राह घाट में इतनी पाप-मूर्तियाँ किनकी देख पड़ती हैं? सब ही यदि इन्द्र की जीजी हैं, तो इतने प्रकार के दु:खों के स्रोत कौन बहाती हैं? तो भी, न जाने क्यों, मन में आता है कि यह सब उनके बाह्य आवरण हैं, जिन्हें कि वे जब चाहें तब दूर फेंककर ठीक उन्हीं के (दीदी के) समान उच्च आसन पर जाकर विराज सकती हैं। मित्र लोग कहते हैं कि यह मेरा अति जघन्य शोचनीय भ्रम है। मैं इसका भी प्रतिवाद नहीं करता, सिर्फ इतना ही कहता हूँ कि यह मेरी युक्ति नहीं है, संस्कार है! इस संस्कार के मूल में जो है, नहीं मालूम, वह पुण्यवती आज भी जीवित है या नहीं। यदि हो भी तो वह कैसे, कहाँ पर है, इसकी खोज-खबर लेने की चेष्टा भी मैंने नहीं की है। किन्तु फिर भी मन ही मन मैंने उन्हें कितनी बार प्रणाम किया है, इसे भगवान ही जानते हैं।

श्मशान के उसी सँकरे घाट के पास, बड़ के वृक्ष की जड़ों से, नाव को बाँधकर जब हम दोनों रवाना हुए तब बहुत दिन बाकी था। कुछ दूर चलने पर, दाहिनी तरफ, वन के भीतर अच्छी तरह देखने से एक रास्ता-सा दिखाई दिया। उसी से होकर इन्द्र ने अन्दर प्रवेश किया। करीब दस मिनट चलने के बाद एक पर्णकुटी दिखाई दी। नजदीक जाकर देखा कि भीतर जाने का रास्ता एक बेंड़े से बन्द है। इन्द्र ने सावधानी से, उसका बन्धन खोलकर, प्रवेश किया; और मुझे अन्दर लेकर फिर उसे उसी तरह बाँध दिया। मैंने वैसा वास-स्थान अपने जीवन में कभी नहीं देखा। एक तो चारों तरफ निबिड़ जंगल, दूसरे सिर के ऊपर एक प्रकाण्ड इमली और पाकर के वृक्ष ने सारी जगह को मानो अन्धकारमय कर रक्खा था। हमारी आवाज पाकर मुर्गियाँ और उनके बच्चे चीत्कार कर उठे। एक तरफ बँधी हुई दो बकरियाँ मिमियाँ उठीं। ध्यारन से सामने देखा तो- अरे बाबा! एक बड़ा भारी अजगर, टेढ़ा-मेढ़ा होकर, करीब-करीब सारे ऑंगन को व्याप्त करके पड़ा है! पल-भर में एक अस्फुट चीत्कार करके मुर्गियों को और भी भयभीत करता हुआ, मैं एकदम उस बेंड़े पर चढ़ गया। इन्द्र खिल-खिलाकर हँस पड़ा, बोला, “यह किसी से नहीं बोलता है रे, बड़ा भला साँप है- इसका नाम है रहीम।” इतना कहकर वह उसके पास गया और उसने उसे, पेट पकड़कर ऑंगन की दूसरी ओर, खींचकर सरका दिया। तब मैंने बेंड़े पर से उतरकर दाहिनी ओर देखा। उस पर्णकुटी के बरामदे में बहुत-सी फटी चटाइयों और फटी कथरियों के बिछौने पर बैठा हुआ एक दीर्घकाय दुबला-पतला मनुष्य प्रबल खाँसी के मारे हाँफ रहा है। उसके सिर की जटाएँ ऊँची बँधी हुई थीं और गले में विविध प्रकार की छोटी-बड़ी मालाएँ पड़ी थीं। शरीर के कपड़े अत्यन्त मैले और एक प्रकार के हल्दी के रंग में रँगे हुए थे। उसकी लम्बी दाढ़ी कपड़े की एक चिन्दी के जटा के साथ बँधी हुई थी। पहले तो मैं उसे पहिचान नहीं सका; परन्तु पास में आते ही पहिचान गया कि वह सँपेरा है। पाँच-छ: महीने पहले मैं उसे करीब-करीब सभी जगह देखा करता था। हमारे घर भी वह कई दफे साँप का खेल दिखाने आया है। इन्द्र ने उसे 'शाहजी' कहकर सम्बोधन किया। उसने हमें बैठने का इशारा किया और हाथ उठाकर इन्द्र को गाँजे का साज-सरंजाम और चिलम दिखा दी। इन्द्र ने कुछ कहे बगैर ही उसके आदेश का पालन करना शुरू कर दिया। जब चिलम तैयार हुई तब शाहजी, खाँसी से बेदम होने पर भी, मानो 'चाहे मरुँ चाहे बचूँ' का प्रण करके, दम खींचने लगा और रत्ती भर भी धुऑं कहीं से बाहर न निकल जाय, इस आशंका के मारे उसने अपनी बाईं हथेली से नाक और मुँह अच्छी तरह दबा लिया, फिर सिर के एक झटके के साथ उसने चिलम इन्द्र के हाथ में दे दी और कहा, “पियो।”

इन्द्र ने चिलम पी नहीं। धीरे-से उसे नीचे रखते हुए कहा, “नहीं।” शाहजी ने अत्यन्त विस्मित होकर कारण पूछा, किन्तु उत्तर के लिए एक क्षण की भी प्रतीक्षा नहीं की। फिर स्वयं ही उसे उठा लिया और खींच-खींचकर नि:शेष करके उलटकर रख दिया! इसके बाद दोनों के बीच कोमल स्वर में बातचीत शुरू हुई जिसमें से अधिकांश को न तो मैं सुन सका और न समझ ही सका। किन्तु एक बात को मैंने लक्ष्य किया कि शाहजी हिन्दी बोलते रहे और इन्द्र ने बंगला छोड़ और किसी भाषा का व्यवहार न किया।

शाहजी का कंठ-स्वर क्रम-क्रम से गर्म हो उठा और देखते ही देखते वह पागलों की-सी चिल्लाहट में परिणत हो गया। इन्द्र को उद्देश्य करके वह जो गाली-गलौज करने लगा वह ऐसी थी कि न सुनी जा सकती है और न सही। इन्द्र ने तो उसे सह लिया परन्तु मैं कभी नहीं सहता। इसके बाद वह बेंड़े के सहारे बैठ गया और दम-भर बाद ही गर्दन झुका करके सो गया। दोनों जनों के, कुछ देर तक, वैसे ही चुपचाप बैठे रहने के कारण मैं ऊब उठा और बोला, “समय जा रहा है, तुम्हें क्या वहाँ नहीं जाना?”

“कहाँ श्रीकान्त?”

“अपनी जीजी के यहाँ। क्या रुपये देने नहीं जाना है?”

“अपनी जीजी के लिए ही तो मैं बैठा हूँ। यही तो उनका घर है।”

“यही क्या तुम्हारी जीजी का घर है? यह तो सँपेरे-मुसलमान हैं!” इन्द्र कुछ कहने को उद्यत हुआ-पर फिर उसे दबा गया और चुप रहकर मेरी ओर ताकने लगा। उसकी दृष्टि बड़ी भारी व्यथा से मानो म्लान हो गयी। कुछ ठहरकर बोला, “एक दिन तुझे सब कहूँगा। साँप खिलाना देखेगा श्रीकान्त?”

उसकी बात सुनकर मैं अवाक् हो गया। “क्या साँप को खिलाओगे तुम? यदि काट खाए तो?”

इन्द्र उठकर घर के अन्दर गया और एक छोटी-सी पिटारी और सँपेरे की तूँबी (बाजा) ले आया। उसने उसे सामने रखा, पिटारी का ढक्कन खोला और तूँबी बजाई। मैं डर के मारे काठ हो गया, “पिटारी मत खोलो भाई, भीतर यदि गोखरू साँप हुआ तो?” इन्द्र ने इसका जवाब देने की भी जरूरत नहीं समझी, केवल इशारे से बता दिया कि मैं गोखरू साँप को भी खिला सकता हूँ। दूसरे ही क्षण सिर हिला-हिलाकर तूँबी बजाते हुए उसने ढक्कन को अलग कर दिया। बस फिर क्या था, एक बड़ा भारी गोखरू साँप एक हाथ ऊँचा होकर फन फैलाकर खड़ा हो गया। मुहूर्त मात्र का भी विलम्ब किये बगैर इन्द्र के हाथ के ढक्कन में उसने जोर से मुँह मारा और पिटारी में से बाहर निकल पड़ा।

'अरे बाप रे!' कहकर इन्द्र ऑंगन में उछल पड़ा। मैं बेंडे पर चढ़ गया। क्रुद्ध सर्पराज, तूँबी पर और एक आघात करके, घर के भीतर घुस गये। इन्द्र का मुँह काला हो गया। उसने कहा, “यह तो एकदम जंगली है। जिसे मैं खिलाया करता था, वह यह नहीं है!” भय, झुँझलाहट और खीझ से मुझे करीब-करीब रुलाई आ गयी। मैं बोला, “क्यों ऐसा काम किया? उसने जाकर कहीं शाहजी को काट खाया तो?” इन्द्र असीम शर्म के मारे गड़ा जा रहा था। बोला, “घर का अर्गल लगा आऊँ? किन्तु यदि पास में ही छिपा हुआ हो तो?” मैं बोला, “तो फिर, निकलते ही उसे काट खाएगा।” निरुपाय भाव से इधर-उधर देखकर इन्द्र बोला, “काटने दो बच्चू को जंगली साँप रख छोड़ा है जो- साले गँजेड़ी को इतनी भी अक्ल नहीं है- यह लो वह जीजी आ गयी। आना मत! आना मत! वहीं खड़ी रहो।” मैंने सिर घुमाकर इन्द्र की जीजी को देखा। मानो राख से ढँकी हुई आग हो। जैसे युग-युगान्तरव्यापी कठोर तपस्या समाप्त करके अभी आसन से ही उठकर आई हों। बाईं ओर कमर पर रस्सी से बँधी हुई थोड़ी-सी सूखी लकड़ियाँ थीं और दाहिने हाथ में फूलों की डलिया के समान एक टोकनी में कुछ शाक-सब्जी थी। पहिनावे में हिन्दुस्तानी मुसलमानिन के कपड़े थे, जो गेरुए रंग में रंगे हुए थे, परन्तु मैले नहीं थे। हाथ में लाख की दो चूड़ियाँ थीं। माँग हिन्दुस्तानियों के समान सिन्दूर से भरी थी। उन्होंने लकड़ी का बोझा नीचे रख दिया और बेंड़ा खोलते-खोलते कहा, “क्या है?” इन्द्र बहुत ही व्यस्त होकर बोला, “खोलो मत जीजी, तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ- एक बड़ा भारी साँप घर में घुस गया है।” उन्होंने मेरे मुँह की ओर देखकर मानो कुछ सोचा। इसके बाद थोड़ा-सा हँसकर कहा, “वही तो। सँपेरे के घर में साँप घुसा है, यह तो बड़े अचरज की बात है! है न, श्रीकान्त?” मैं अनिमेष दृष्टि से केवल उन्हीं के मुँह की ओर देखता रहा। “किन्तु, यह तो कहो इन्द्रनाथ, वह अन्दर किस तरह गया?” इन्द्र बोला, “पिटारी के भीतर से निकल पड़ा है। एकदम जंगली साँप है।”

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